Monday, July 22, 2019

क्या इतिहास दोहराएगा ?

क्या इतिहास दोहराएगा ?

आपको याद होगा कि किसी ज्यूनियर ऑफिसर को उसके ब्रँच मँनेजरने थप्पड मारनेवाला व्हिडियो सोशल मिडियापर व्हायरल हुवा था. उसे कितनी लाईक्स मिली इस बातका कोई महत्व नही है लेकिन कमेंट मे सैकडो लोगोने जो बाते लिखी उससे अंदाजा लगता है कि पूरे देशभरमे ऐसी घटनाए हर दिन कही ना कही होती होगी मगर भयके कारन उसे कोई अपनी जुबापर लाता नही होगा.

कमेंटमे यह भी पढ़ने मिला था कि ऐसे मामलोमे युनियन्स क्या करती है ? लेकिन ज्यादातर कमेंट मँनेजमेंट को गालीया देते हुए अपना गुस्सा व्यक्त करनेवाले थे.

मित्रो, मँनेजमेंटका यह रवैया रुकनेका नाम नही ले रहा है बल्कि दिनबदिन ऐसी घटनाए बढ़ रही है. गत सप्ताह एक ऑडियो क्लिप व्हायरल हुई. पुणेकी किसी महिला शाखाप्रमुख और पुणे क्षेत्रके डीजीएम के बीच फोन पर बात हुई और डीजीएमने बात करते समय उसे धमकाया तथा असभ्य भाषाका प्रयोग किया. "आपको शर्म नही आती ... आपका औरंगाबाद रुरलमे ट्रान्स्फर कर दूंगा" वगैरा वगैरा ....

इसी तरहकी और एक क्लिप सुनी जिसमे एक ऑफिसर जो कि अस्पतालमे अँडमिट है उसे एजीएम ड्यूटी जॉइन करनेके लिए सख्ती कर रहा है. अधिकारी उसकी मजबूरी बयान कर रहा है लेकिन एजीएम सुनना नही चाहते और गुस्सेमे कहते है कि रिझाईन करो. मित्रो, अपने घरमे नौकर, नौकरानीसे बात करते समय हम सभ्यताकी सीमाका पालन करते है. तो क्या बँकोमे काम करनेवाले अधिकारी, शाखाप्रमुख इन नोकर नौकरानीयोंसे गैरगुजरे है ? कभी राहूल द्रविडने हमारे बँकलिए कहा था "मेरा बँक बदल रहा है" लेकिन ऐसा बदलाव किसीने सपनोमेभी नही सोचा होगा.

मित्रो, १९५० के दशकमे बँकोमे ऐसेही जुल्मका दौर चल रहा था. जिसपर जुल्म, अन्याय होता था वह उसे सहता था क्यो कि अन्य लोग चूप्पी साधे बैठते थे, लड़नेकेलिए कोई आगे नही आता था. जब यह अन्याय, जुल्म अपने चरमसीमापर पहूचे तब लोगोने संगठित होकर प्रतिकार करना आरंभ किया. १९७० के बाद युनियनके संगठन एक ताकदवर शक्तीके रुपमे उभरने लगे. लेकिन इस संगठित शक्तीका पतन १९९९-२००० के बाद होना आरंभ हुवा और २०१० के बाद तो यह अस्तित्वहीन लगने लगे.

युधविराम कालमे अपने अस्त्र और शस्त्रोंको यदि उपयोगमे नही लाया तो वह किसी कामके नही रहते. ऐसी स्थितिमे जब शत्रू प्रहार करता है तो संख्याबल एवम संगठित शक्ती होनेके बावजूद भी हारका सामना करना पडता है. आज हमारी सारी युनियन्स युएफबीयू के झंडेतले एक है, संख्याबल भी भारी है लेकिन हम लड़ना भूल गये है. आंदोलन, धरना, कोर्टकेसेस इनके साथ साथ आजके टेक्नॉलॉजीके युगमे हम सीधे महिला आयोग, अर्थमंत्रालय, पीएमओ जैसे विभागोको अपनी शिकायत इमेलद्वारा भेज सकते है. आपसी संपर्कके आधुनिक साधन सुविधा हातमे होनेके कारण आप और अच्छी तरहसे संगठित हो सकते हो.

संगठनोंको फिरसे सक्रिय बनना होगा और इसमे युवा पिढीके बैंक कर्मियोंको आगे आना होगा. इतिहासके पन्ने फिरसे दोहराएंगे. अन्याय और जुल्म अपनी चरमसीमा छूने की राह क्यो देखे ? संगठन और उनकी ताकद अस्तित्वहीन हुई है ... मँनेजमेंटकी इस गलतफहमीको दूर करना होगा. साधूने सापको दिया हुवा संदेश याद रखे "फुत्कारो लेकिन काटो मत"! बैंकका कोई नुकसान न हो लेकिन मँनेजमेंटके गलत तत्व जड़से खत्म हो इसका ध्यान रहे. अगर कूछ नुकसान होता है तो उसे दुरुस्त करनेवाले हम अधिकारी-कर्मचारी है. लेकिन गलत बर्ताव करनेवाली मँनेजमेंटका रवैया ऐसाही चलता रहा तो बैंकके अस्तित्वपर प्रश्नचिन्ह लगेगा.

इसलिए लड़ते समय यह बात ध्यानमे रहे कि हम देशहितमे लड़ रहे है. देशहित सर्वोच्च है बादमे उद्योगहित आता है और हमारा अस्तित्व और हित इन्ही दो तत्वोके साथ जूडा है. "मै .. मेरा" इस दृष्टिकोनको त्यागकर "हम ... हमारा" यह सोचही बॉबकल्चर को, हमारी अलग कार्यसंस्कृतीको बचाएगी और बैंक कै सदा प्रगतीपर ले जाएगी.

बिंदूमाधव भुरे, पुणे
bnbhure@rediffmail.com

1 comment:

  1. हदसे गुजर जानेवाला administration एक संस्थाके हितमे कतईं नही हो सकता किसी व्यॉक्ती बिषेशका अहंम बढता है तो यह हालात पैदा होते है इसे समय होते नहीं रोकातो भविष्य अंधकारमम हो जायेगा

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